Saturday, May 15, 2010

योर वेलकम किड


कुछ शब्द हमारे दिल में घर कर जाते हैं और अपना घरोंदा सा बसा लेते हैं. वो शब्द अपने ही अस्तित्व का एक हिस्सा सा मालूम होते हैं. उन्हें देख कर चेहरे पर वजह जाने बगैर ही मुस्कराहट आ जाती है. क्या सबके साथ ऐसा होता है या फिर ऐसी मैं ही अकेली हूँ ?
बचपन में माँ कहा करती थी कि हर शब्द के पीछे एक कहानी होती है. माँ की यह बात भूली नहीं हूँ अब तक, शायद इसी लिए इन शब्दों के पीछे भी एक कहानी सी उभरी लगती है. एक कहानी जिससे मेरी ज़ादा जान पहचान नहीं हो पाई. क्योंकि जब तक कहानी से पर्दा उठा, मैं दर्शकों की कतार में नहीं थी. मगर मुझे इस बात का गम नहीं क्योंकि अगर पिक्चर पूरी देख ली तो कहानी के पन्ने दोबारा पलटने में उतना मज़ा नहीं आता. 
जिंदगी के इस मंच पर जब भी कोई कहानी पेश होती है तो वह सिर्फ एक पर्दे के सहारे नहीं बढती. जिंदगी के दांव पेच को संजो के रखने वाले पर्दे अनगिनत हैं और इसे समझने की कोशिश में मैने कुछ पर्दों को उठते हुए देखा है. 
27 बरस पहले शुरू हुई कहानी, मेरी पहली साँस लेने के दिन से नौ साल पहले. उस कहानी के हर एक शब्द से मुझे अपनी सी भाषा की पहचान होती है. उस भाषा में अपने ही वजूद का एहसास होता है, मैं क्या कर सकती हूँ और क्या नहीं कर रही इसका मुल्यांकन करने का विचार आता है. कुछ दिनों तक एक पर्दे के उठने का इंतजार धीरज सिखाता है और यह सोचने पर मजबूर भी करता है कि निशा तुझे असल में पाना क्या है? 
कभी वो शब्द मेरे चेहरे पर उदासी ले आते है तो कभी ख़ुद पर भरोसा भी होता है जो पहले कभी नहीं हुआ. ओह! माफ़ करना ये सब वर्तमान की नहीं बीते वक्त की बातें है जो कभी दोहराई नहीं जाएगी, इसलिए मुझे हर जगह था का प्रयोग करना चाहिए था. पर क्या करें ऐसा लगता है की बस थोड़ा वक्त ही गुज़रा है जब किसी ने मुझे डांटा था, समझाया था और मेरे अंत में थेंक यू बोलने के बाद कहा था  "योर वेलकम किड".