Thursday, November 11, 2010

कान्हा माखन चुरा कर भाग जाते थे...  चोर चोरी कर के भाग जाता है... और मैं ??? भागना कितना आसन होता है न... लेकिन शायद उससे भी आसन होता है हालत का सामना करना. दुनिया भर की हिम्मत जुटा कर बस एक बार हालत को अपना मुह दिखा दो, कुछ पल के लिए सह लो, सुन लो और फिर .... फिर हर पल उसी हालत से जूझना नहीं पड़ेगा ... उससे मुझ छिपा कर भागना नहीं पड़ेगा ... 
देखा कितना सब कुछ जानते हैं हम लेकिन फिर भी वही करते हैं जो नहीं करना चाहिए ... क्यों ??? फिर जब कुछ देर बाद एहसास होता है तो लगता है कि गाड़ी तो स्टेशन से निकल चुकी है जैसे एक रात मैं उस अँधेरे से निकल आई थी. अँधेरे को पीछे छोड़ते वक्त मैने यह न जाने क्यों नहीं सोचा था कि रौशनी में ये आंखें कहीं मेरा साथ तो नहीं छोड़ जाएँगी ... 
उस अँधेरे में एक शक्श पीछे छुट गया ... आज लगता है कि शायद मेरा अक्स पीछे छूट गया ... लौट आना चाहा संग उसके मैने दुनिया मैं लेकिन रौशनी से गुज़ार कर फिर अँधेरे में डर लगता है .... और भागती रहती हूँ मैं ख़ुद से ही यह कह कर कि मेरा अक्स मेरे साथ है ... 

Thursday, October 21, 2010

वो चली गई

वो चली गई... चूप-चाप, ख़ामोशी को ओढ़े ठीक वैसे ही जैसे उसे ओढ़े पूरी जिंदगी निकाल दी थी. पापा अक्सर बाऊ जी को याद करते थे अब बीबी जी को भी सिर्फ याद करेंगे. मैने कभी बाऊ जी को नहीं देखा इसलिए कभी उनकी याद भी न आई. लेकिन बीबी जी को तो मैं जानती थी, कम ही सही पर जानती थी. 
आज ज़रा मुश्किल सा है उनकी छवि बनाना, कैसी थी वो? कुछ साल पहले तक तो सफेद बालों में काली परांदी नज़र आती थी वो भी गोल से बंधे बालों में उलझी हुई. हलके रंग के सूट और उससे भी फीका दुप्पटा जो उनके सफेद चमकते बालों को कभी कभी ढक दिया करता था. पहाड़ों में हो कर भी उनकी वो पंजाबी सी बोली, "मधु... ना पुत्तर इंज नी करीं दा...". मुझे मधु बुलाने वालों में वो भी एक थी. पापा की ताई जी, हमारी बीबी जी अब मुझे कभी मधु नहीं बुलाएंगी, कभी मुझे डाटेंगी भी नहीं और उनकी आवाज़ घर की दीवारों से टकरा कर कभी वापिस नहीं आयेगी. 
वो हमेशा याद आयेंगी कभी मेरी माँ की सास बन कर और कभी पापा की बड़ी माँ. रिश्ता जो भी हो लेकिन नाम सिर्फ एक रहेगा बीबी जी, हमारी बीबी जी. 
पापा से नाराज़ हूँ उन्होंने बताया भी नहीं, माँ से तो बहुत खफा हूँ उन्होंने आने नहीं दिया और आपसे... जानती थी ना आप की कभी बात नहीं करुँगी आपसे, क्योंकि अपने अपनी बीमारी की खबर भी ना दी. इसीलिए बिना खबर दीये ही चली गई ना आप. 
मना लिया होता बीबी जी, आप एक बार प्यार से मधु कहती और मैं दूसरा सवाल भी ना करती. आपने तो एक मौका भी नहीं दिया. पापा कहते हैं की बाऊ जी आपको बड़े शोर शराबे  के साथ हमारी जिंदगी में लाये थे तो फिर आप इतनी ख़ामोशी से हमारी जिंदगी से क्यों चली गई? क्यों?   
     
            

Saturday, May 15, 2010

योर वेलकम किड


कुछ शब्द हमारे दिल में घर कर जाते हैं और अपना घरोंदा सा बसा लेते हैं. वो शब्द अपने ही अस्तित्व का एक हिस्सा सा मालूम होते हैं. उन्हें देख कर चेहरे पर वजह जाने बगैर ही मुस्कराहट आ जाती है. क्या सबके साथ ऐसा होता है या फिर ऐसी मैं ही अकेली हूँ ?
बचपन में माँ कहा करती थी कि हर शब्द के पीछे एक कहानी होती है. माँ की यह बात भूली नहीं हूँ अब तक, शायद इसी लिए इन शब्दों के पीछे भी एक कहानी सी उभरी लगती है. एक कहानी जिससे मेरी ज़ादा जान पहचान नहीं हो पाई. क्योंकि जब तक कहानी से पर्दा उठा, मैं दर्शकों की कतार में नहीं थी. मगर मुझे इस बात का गम नहीं क्योंकि अगर पिक्चर पूरी देख ली तो कहानी के पन्ने दोबारा पलटने में उतना मज़ा नहीं आता. 
जिंदगी के इस मंच पर जब भी कोई कहानी पेश होती है तो वह सिर्फ एक पर्दे के सहारे नहीं बढती. जिंदगी के दांव पेच को संजो के रखने वाले पर्दे अनगिनत हैं और इसे समझने की कोशिश में मैने कुछ पर्दों को उठते हुए देखा है. 
27 बरस पहले शुरू हुई कहानी, मेरी पहली साँस लेने के दिन से नौ साल पहले. उस कहानी के हर एक शब्द से मुझे अपनी सी भाषा की पहचान होती है. उस भाषा में अपने ही वजूद का एहसास होता है, मैं क्या कर सकती हूँ और क्या नहीं कर रही इसका मुल्यांकन करने का विचार आता है. कुछ दिनों तक एक पर्दे के उठने का इंतजार धीरज सिखाता है और यह सोचने पर मजबूर भी करता है कि निशा तुझे असल में पाना क्या है? 
कभी वो शब्द मेरे चेहरे पर उदासी ले आते है तो कभी ख़ुद पर भरोसा भी होता है जो पहले कभी नहीं हुआ. ओह! माफ़ करना ये सब वर्तमान की नहीं बीते वक्त की बातें है जो कभी दोहराई नहीं जाएगी, इसलिए मुझे हर जगह था का प्रयोग करना चाहिए था. पर क्या करें ऐसा लगता है की बस थोड़ा वक्त ही गुज़रा है जब किसी ने मुझे डांटा था, समझाया था और मेरे अंत में थेंक यू बोलने के बाद कहा था  "योर वेलकम किड".