Monday, May 9, 2011




सपने, इन आँखों में अपना मकान कितनी सहजता से बना लेते हैं ! लेकिन मकान की नींव हर बार मज़बूत नहीं होती. कभी कभी वो कोई आकार लेने से पहले ही रेत के ढेर में बदल जाती है. दिल ये मानने को तैयार नहीं होता और हकीकत बार बार ये एहसास दिलाती है की तुम्हारा ख्वाब अब तुम्हारी पहुँच से बहुत दूर है. .शायद इतनी दूर कि अंत में हमें भी ये बोलना पड़े कि अंगूर खट्टे हैं, या फिर सपने बहुत बड़े.

बड़े बड़े सपने देखोगे तभी तो कुछ कर पाओगे जिंदगी में, बचपन में मास्टर जी के मुह से बहुत सुना था. आज बड़ा ही बेमानी लगता है ये वाक्य, ऐसा लगता है, मानो सपनों के बोझ तले ख़ुद को दबा रखा है. अगर ये पूरा हुआ तो, दोस्त तो मजाक उड़ायेंगे, लड़कियां शायद बात भी करें और माँ, माँ का तो दिल ही टूट जायेगा ? ये सब रिश्ते तुम्हारी जिंदगी में कामयाबी की शर्त पर तो नहीं आए थे. शायद नहीं, लेकिन एक डर सा लगता है, एक सपना खो देने का डर और हकीकत में उससे अपनों को खो देने का डर. एक ख्वाब के साथ डर मुझे मुफ्त मिला है, क्या सबको मिलता है
उस डर से बाहर निकलना है, खुले असमान तले सीना तान कर चलना है. ये कहना है कि जहान पाना है क्योंकि कुछ नहीं है जो मैं खो सकूं इस पाने के सफ़र में. आज इन नाज़ुक सी दीवारों को खूब निहार लूँ मैं क्योंकि कल तो ये नहीं होगी, उड़ जाएँगी बहुत दूर एक तूफान के संग जो मेरी आज़ादी की हवा संग आयेगा. पूछूँगी  मैं ख़ुद से कि ये नशा ख्वाबों के मकान टूटने का है या फिर उस छत्त के उड़ जाने का जिससे तुम्हे असमान नहीं दिखता था.    

Monday, January 10, 2011

कुछ सोचा न समझा बस दिल लगा बैठी ... ये बात तो समझ में आती है ... लेकिन ये दिल क्या चाहता है? ये समझ कर भी समझ नहीं आता.  कभी इसे अच्छा दोस्त चाहिए तो कभी सबसे अच्छा जीवन साथी, कभी इस दिल को सभी आराम चाहिए होते हैं तो कभी मुश्किल हालातों से जूझने का मज़ा, कभी लगता है की तस्वीरें खींचना ही इस दिल को लुभाता है तो फिर कभी लिखना ज़ादा अच्छा लगता हैं. पर दिन के अंत में यह दिल फिर एक तलाश में रहता है कि कुछ तो हो जो इसे ख़ुशी दे, वो ख़ुशी जो फुर्सत में आए, तसल्ली से बैठे और ठहर कर जाये  ... 
अब ये ख़ुशी किस बला का नाम है ?  
खूब किताबें पढ़ी, लोगों से पुछा और तो और गूगल पर भी ढूंडा लेकिन ... ख़ुशी की परिभाषा नहीं जान पाई. फिर ख़ुद की परिभाषा बनाई और लिखा " ख़ुशी, वैसा ही एहसास जैसा महीनों बाद माँ की गोद में सर रख कर होता हैं, दोस्त को तंग करके लगता है, किसी की मदद कर के महसूस होता है, जैसा पहले प्यार की खबर मिलने पर होता है, वो लम्बा इंतजार के बाद पहली मुलाकात याद है ... यही कुछ अलग सा, अजीब सा, प्यारा सा एहसास ही तो है ख़ुशी"    
... शायद यही है ख़ुशी ... लेकिन मेरी ख़ुशी आपकी ख़ुशी से अलग है ... जैसे आपकी ख़ुशी मुझसे. बस एक ही बात समान है और वो है "ख़ुशी" जो दिल के किसी कोने में अपना घरोंदा बना के बैठ गई है और होंठों तक आने में आना कानी कर रही है. पूछ रही है की इस दिल को आखिर चाहिए क्या? 
काश इस दिल को मालूम होता ... तो उस दिन मैं ख़ुशी के दर से यूँ खाली झोली न चली आती ... 
कब इस दिल को मालूम होगा ... की इसकी हसरत क्या है??? 

Sunday, January 9, 2011

कभी कभी ख़ुद को अकेला पा कर कुछ सोचा करती हूँ ... शब्द हैं ... लेकिन मतलब नहीं ...और जब मतलब ढुंढती हूँ तो शब्द बिखर जाते हैं ... धागा टूट कर बिखरे मोती जैसे...  
कभी कभी लगती है ... ये दुनिया ... एक जलेबी सी ... खूब मीठी ... लेकिन ज़ादा मीठा भी कहाँ भाता है ... बस फिर वो लम्हा याद आता है जब मीठे की ओड़ में कड़वाहट मिली थी... और वो दिन भी जब एक चीनी का दाना फिटकरी के ढेर में से ढूंडा था... ख़ुशी तो बहुत हुई थी उसे पा कर लेकिन आधी अधूरी सी... स्वाद जो मुह में आ न सका ... 
कभी कभी सुर्ख लहू से लिखी इबारत को पढ़ती हूँ ... राकेशकमला ... दो नाम जो खून से एक हो जाना चाहते थे ... दुनिया में रह कर न कर सके तो दुनिया से दूर चले जाना चाहते थे ... जो भी हो वो प्यार पाना चाहते थे ... 
इस जलेबी में किसी को रोक पाने की ताकत नहीं ... प्यार देने की हिम्मत नहीं ... मेरे शब्दों को देने के लिए सहारा नहीं ... और नहीं है तो इसके पास दिल जो एहसास समझ पाए ... हम दिल वाले इंसानों के ...