Sunday, January 9, 2011

कभी कभी ख़ुद को अकेला पा कर कुछ सोचा करती हूँ ... शब्द हैं ... लेकिन मतलब नहीं ...और जब मतलब ढुंढती हूँ तो शब्द बिखर जाते हैं ... धागा टूट कर बिखरे मोती जैसे...  
कभी कभी लगती है ... ये दुनिया ... एक जलेबी सी ... खूब मीठी ... लेकिन ज़ादा मीठा भी कहाँ भाता है ... बस फिर वो लम्हा याद आता है जब मीठे की ओड़ में कड़वाहट मिली थी... और वो दिन भी जब एक चीनी का दाना फिटकरी के ढेर में से ढूंडा था... ख़ुशी तो बहुत हुई थी उसे पा कर लेकिन आधी अधूरी सी... स्वाद जो मुह में आ न सका ... 
कभी कभी सुर्ख लहू से लिखी इबारत को पढ़ती हूँ ... राकेशकमला ... दो नाम जो खून से एक हो जाना चाहते थे ... दुनिया में रह कर न कर सके तो दुनिया से दूर चले जाना चाहते थे ... जो भी हो वो प्यार पाना चाहते थे ... 
इस जलेबी में किसी को रोक पाने की ताकत नहीं ... प्यार देने की हिम्मत नहीं ... मेरे शब्दों को देने के लिए सहारा नहीं ... और नहीं है तो इसके पास दिल जो एहसास समझ पाए ... हम दिल वाले इंसानों के ...      

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