Monday, January 10, 2011

कुछ सोचा न समझा बस दिल लगा बैठी ... ये बात तो समझ में आती है ... लेकिन ये दिल क्या चाहता है? ये समझ कर भी समझ नहीं आता.  कभी इसे अच्छा दोस्त चाहिए तो कभी सबसे अच्छा जीवन साथी, कभी इस दिल को सभी आराम चाहिए होते हैं तो कभी मुश्किल हालातों से जूझने का मज़ा, कभी लगता है की तस्वीरें खींचना ही इस दिल को लुभाता है तो फिर कभी लिखना ज़ादा अच्छा लगता हैं. पर दिन के अंत में यह दिल फिर एक तलाश में रहता है कि कुछ तो हो जो इसे ख़ुशी दे, वो ख़ुशी जो फुर्सत में आए, तसल्ली से बैठे और ठहर कर जाये  ... 
अब ये ख़ुशी किस बला का नाम है ?  
खूब किताबें पढ़ी, लोगों से पुछा और तो और गूगल पर भी ढूंडा लेकिन ... ख़ुशी की परिभाषा नहीं जान पाई. फिर ख़ुद की परिभाषा बनाई और लिखा " ख़ुशी, वैसा ही एहसास जैसा महीनों बाद माँ की गोद में सर रख कर होता हैं, दोस्त को तंग करके लगता है, किसी की मदद कर के महसूस होता है, जैसा पहले प्यार की खबर मिलने पर होता है, वो लम्बा इंतजार के बाद पहली मुलाकात याद है ... यही कुछ अलग सा, अजीब सा, प्यारा सा एहसास ही तो है ख़ुशी"    
... शायद यही है ख़ुशी ... लेकिन मेरी ख़ुशी आपकी ख़ुशी से अलग है ... जैसे आपकी ख़ुशी मुझसे. बस एक ही बात समान है और वो है "ख़ुशी" जो दिल के किसी कोने में अपना घरोंदा बना के बैठ गई है और होंठों तक आने में आना कानी कर रही है. पूछ रही है की इस दिल को आखिर चाहिए क्या? 
काश इस दिल को मालूम होता ... तो उस दिन मैं ख़ुशी के दर से यूँ खाली झोली न चली आती ... 
कब इस दिल को मालूम होगा ... की इसकी हसरत क्या है??? 

2 comments:

  1. may be its more than that ... or may be it is nothing ... depends person to person ...
    can we generalise ?

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