Sunday, September 2, 2012

रोना चाहती हूँ, दिल खोल कर रो लेना चाहती हूँ. रो भी लेती हूँ लेकिन हर बार  कहीं  कुछ   दबा  सा,  फंसा  सा  रह  जाता  है  ... पता  नहीं  कौन सा  हिस्सा  है  वो  मेरा  जो  चाह  कर भी  मुझसे जुदा  नहीं  हो  पाता  है  ... कुछ  दिन  पहले  एक  कहानी  लिखने  की  कोशिश  की  थी  ... कुछ  हिस्सा  तो  लिख  भी  लिया  था  ... मगर  वो  कहानी  अधूरी  रह  गई ...  मेरी कहानी भी अधूरी रह गई ... 

गला बहुत बार घुटता है ... दोस्तों संग बैठे  मुस्कुरा भी लेती हूँ लेकिन ... कुछ लिख नहीं पाती आज कल ... और बर्दाश्त  नहीं होता अब ... कभी कभी सोचती हूँ की ऐसे जीने से मरना बेहतर है ... मरने की तरकीबें भी तलाश लेती हूँ जिसमे दर्द थोड़ा कम हो और तडपना न पड़े ... लेकिन फिर ... मेरी हिम्मत थोड़ी बढ़ जाती है रोज़ रोज़ मरने की और मैं एक ही बार मरने का ख़याल छोड़ देती हूँ ... 

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